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टिपण्णी
राजनीति में ईमानदारी और आचरण में शुचिता का सवाल
-डा. रामजीलाल जांगिड़*
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दिल्ली: आज मैं आपको बीते दिनों कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और हरियाणा के पांच सितारा होटलों तथा रिसॉर्टों में जन सेवा के लिए व्याकुल होकर विधानसभाओं के सत्र बुलाए जाने तक अलग अलग राजनीतिक दलों की मेहमान नवाजी का मज़ा लूटने वाले विधायकों एवं मंत्रियों को भारतीय राजनीति में अपनी ईमानदारी, सादगी और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता के नाते नाम कमाने वाले कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं-नेताओं की याद दिलाना जरूरी समझता हूं।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा के लिए जीते वैद्य कन्हैया लाल विश्वकर्मा (जिन्हें आदर और प्रेम से वैद्यजी भी कहते थे) और समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीते बालेश्वर दयाल (जिन्हें सम्मान से लोग मामा जी कहते थे) जब लोकसभा के सत्र में भाग लेने के लिए दिल्ली आते थे तो पहले घर से स्टेशन पैदल आते थे। फिर स्टेशन पर आर्थिक दृष्टि से मजबूत यदि कोई परिचित दिख जाता था तो उसे कहते थे – ‘जाओ दिल्ली का तीसरे दर्जे का एक टिकट खरीद लाओ।’ नई दिल्ली स्टेशन से पैदल नार्थ एवेन्यू तक जाते थे वह । यहां तक कि संसद भवन भी पैदल ही जाते थे। जाहिर है जीवन में जब पैसा बनाया ही नहीं, तो जेब तो खाली रहेगी ही। जब वैद्यजी का स्वर्गवास हो गया, तो उनके बेटे और पत्रकार क्रांति कुमार वैद्य ने देवास (मध्य प्रदेश) से मुझे फोन किया – “पिताजी पैसे तो छोड़ नहीं गए। बहन की शादी करनी है। कोई ऐसा लड़का बताइए जो बिना दहेज शादी कर सकता हो।” मेरे मित्र अशोक विरमानी गुड़गांव में 2 कालोनियों के निवासियों के संगठनों के हाल ही में प्रधान चुने गए हैं। वह मेरी जीवनी की हर कड़ी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। आदित्य धीमान और डा. ऋतु तंवर की तरह। वे जरूर पूछेंगे – ‘कहां गए वे लोग’ ? अशोक जी ! अब जमाना बदल गया है। अब दादा बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया। हर चीज बिकती है। आप चाहे तो घर से निकले बिना आनलाईन मंगवा लीजिए। नाचने के लिए फिल्म स्टार हाज़िर है।
भारत के प्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय गुलजारी लाल नंदा के बैंक खाते में उनका स्वर्गवास होने पर केवल 2,474 रु ही निकले थे। अढ़ाई हजार रु से छब्बीस रु कम। फ्लैट, कोठी, फार्म हाउस कुछ भी तो बना नहीं सके वह। लिहाजा पूरी जिंदगी किराए के मकान में ही काट दी। एक बार की बात है कि मकान का किराया नहीं दे सके तो मकान मालिक ने उनका सामान सड़क पर ही फेंक दिया था। इसे कहते हैं घर फूंक, तमाशा देख। मगर जिद्दी घर फूंककर भी देश सेवा के लिए मिट गए।
कांग्रेस के एक और सादगी पसंद तथा ईमानदार केंद्रीय खाद्य मंत्री रहे थे – मरहूम रफी अहमद किदवई। अपनी तनख्वाह का बड़ा हिस्सा गरीब छात्रों की फीस और किताबें खरीदकर देने में ही लगा देते थे। उनकी मौत के बाद बीबी बच्चे बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) के टूटे फूटे खानदानी घर में लौट गए। आज हालत तो यह है कि पार्टी छोड़ देंगे मगर सरकारी बंगला नहीं। ऊपर से बोलेंगे – अभी पार्टी छोड़ी कहां है ? कोई पार्टी विरोधी बयान तो दिया नहीं। मिलना- जुलना तो चलता है। पंडित नेहरू मंत्रिमंडल में एक और आदर्शवादी श्रम मंत्री थे – स्वर्गीय आबिद अली। पूरा साल एक जोड़ी कपड़े में बिता देते थे। संसद से लौट कर लुंगी बांधी और उसी एक जोड़ी कपड़े को अपने हाथों से धोकर सुखा दिया। दूसरे दिन उन्हें ही पहनकर वह फिर से संसद पहुंच जाते थे। संसद भी वह साइकिल से जाते थे।
अशोक जी मुझसे फिर से पूछेंगे कि “कहां गए वे लोग ?” जवाब ढूंढें तो याद आते हैं एक नामी वकील जिनका नाम लेना उचित नहीं होगा । मीडिया की माने तो लोग उनको एक दिन अदालत में पेश होने की फीस दे रहे हैं पचास लाख रुपये। किस बात के लिए ? इसलिए कि हमें विधानसभा का अध्यक्ष बता कर बात करने वाला या हमसे कुछ भी पूछने वाला वह कौन होता है ? हालांकि जिसके बैठने के पहले डेढ़ साल तक वह लोग विधानसभा शुरू होने पर सम्मान में हम सिर झुकाए खड़े रहते थे। यह वकील की पूरे मुकदमे की फीस नहीं है। केवल एक बार अदालत में बहस करने जाने की फीस है। अशोक जी ! यह मत पूछिए कि गड्डियां कहां से आ रहीं हैं ? किस पार्टी की सरकार के सिपाही नेहरू की पार्टी के विधायकों को होटल के पिछले दरवाजे से चुपचाप निकाल रहे हैं। यारी दोस्ती में इतना तो आजकल चलता ही है। गांव गांव ढाणी ढाणी जिस झंडे को लेकर कभी चिल्लाते थे – ‘वसुंधरा तेरी खैर नहीं’, अब उसी झंडे को वह फाड़ दें या जला दें । वह यह तब तय करेंगे जब झंडे थामने वाले तीस हो जाएंगे। तब तक उठकर जीमोसा। और आप दिल थाम कर 14 अगस्त का इंतजार कीजिए।
यह तो ट्रेलर है। पिक्चर अभी बाकी है। ईमानदार और सिद्धांतों की रक्षा के लिए सुख सुविधाओं की तिलांजलि देने वाले सच्चे जनसेवक समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियों में भी रहे हैं। त्रिपुरा के पूर्व कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री माणिक सरकार पद त्यागने के बाद से पार्टी के दफ्तर में ही रह रहे हैं, क्योंकि अपना फ्लैट, कोठी और फार्म हाउस जैसा उनके पास कुछ नहीं है। नौ बार सांसद रहने वाले कम्युनिस्ट नेता स्वर्गीय हिरेन मुखर्जी और इंद्रजीत गुप्ता संसद भवन पैदल जाते थे या आटो रिक्शा में। क्योंकि कार खरीदी नहीं। सारा वेतन और भत्ता पार्टी को दे देते थे। केवल दो सौ रुपयों में महीना निकाल देते थे यह लोग। दोनों बड़े जबरदस्त वक्ता थे। स्वर्गीय हरि विष्णु कामत क्या बोलते थे ? सन्नाटा छा जाता था संसद में। पुराने आई.सी.एस अफसर मगर कंधे पर लटकते हुए झोले में रहते थे – केवल दो कुर्ते और पायजामे। इसके अलावा कुछ नहीं। समाजवादी पार्टी के एक और नामी सांसद थे- स्वर्गीय भूपेंद्र नारायण मंडल ।चुनाव क्षेत्र के दौरों में वह बैलगाड़ी पर चलते थे। अपना सामान किसी से नहीं उठवाते थे। ऐसे थे हमारे जन प्रतिनिधि। इन पर हमें गर्व है।
*लेखक प्रख्यात शिक्षाविद, विचारक व गांधीवाद दर्शन के जाने-माने अध्येता हैं। यहां प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।
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