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बचपन में माता-पिता के प्रेम से वंचित रहना भी घरेलू हिंसा का एक अहम कारण
–डा. रामजीलाल जांगिड*
घरेलू हिंसा के लिए शराब पीने की पुरुषों की लत तो जिम्मेदार है ही साथ ही बचपन में बालक को माता-पिता का प्रेम ना मिलना भी एक कारण है। इस बारे में मेरा मानना है कि जिसके पास प्रेम की पूंजी ही नहीं है, वह औरों को क्या बांटेगा ? जिन बच्चों को शिक्षा के कारण या मां के मरने के बाद घर में किसी भरोसेमंद महिला रिश्तेदार के न होने के कारण अभिभावक द्वारा लंबे समय तक छात्रावासों में डाल दिया जाता है, ऐसे बालक -बालिकाएं परिवार में सब के साथ रहने के कारण पैदा होने वाले लगाव, सामीप्य के सुख और सुरक्षा की भावना से वंचित रह जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें बचपन से ही प्रेम की पूंजी नहीं मिल पाती। नतीजा यह होता है कि अभिभावकों के प्रति कई बार उनके बाल मन में कटुता पैदा हो जाती है, क्योंकि वे यह समझने लगते हैं कि वह परिवार में स्वागत योग्य नहीं (Unwanted) हैं। कई बार उन्हें यह भी महसूस होने लगता है कि उनके मां – बाप स्वार्थी हैं और अपनी व्यक्तिगत आज़ादी में उनके कारण कोई बाधा नहीं चाहते। ऐसे वातावरण में पली बढ़ी युवती या युवक की शादी संयुक्त परिवार में पले बढ़े युवक या युवती के साथ हो जाए तो उस युवक या युवती और उसके परिवार के अन्य सदस्यों को उस युवती या युवक के रूखे बर्ताव और मन में दबी हुई कटुता के कारण उत्पन्न व्यवहार को जिंदगी भर के लिए झेलना पड़ता है। ऐसे विवाह दोनों के परिवारों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध नहीं बनने देते। कई बार तो ऐसी युवतियां या युवक पीहर और ससुराल के अपने सारे सम्बन्धियों से दूरी बनाकर ‘हम दो’ और ‘हमारे दो’ में ही सिमट जाते हैं।
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ऐसी स्थिति में उनकी संतान के मानसिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। उनके भारतीय समाज में किसी और रिश्तेदार से कभी भी मिल लो, की आज़ादी की जगह पश्चिमी देशों के समाज की तरह मुलाकात का समय पहले लेकर ,आपसी सहमति होने पर ही दर्शन हो सकते हैं।
दुर्भाग्यवश भारत में हाल के वर्षों में ऐसे ‘एकल’ परिवारों की संख्या रोजगार की तलाश में गांव छोड़कर महानगरों की ओर दौड़ने के कारण बेहद बढ़ी है। असलियत यह भी है कि हमने आज़ादी के बाद के बीते वर्षों में महानगरों में बहुमंजिली इमारतें बनाने और उनके बराबर में झुग्गी झोपड़ियां खड़ी करने में लगा दिए हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि गांव उपेक्षित रह गए । अब हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकता गांवों में स्कूल , अस्पताल, सड़क, वेयर हाउस, बिजलीघर, पीने के साफ पानी की व्यवस्था, गौशाला, पशु चिकित्सालय, कुटीर उद्योग, कृषक व विज्ञान केन्द्र, कोल्ड स्टोरेज, अनाज मंडी, फल मंडी, सब्जी मंडी, पुस्तकालय , व्यायाम शाला, समुदाय भवन, पंचायत घर, तरण ताल, वरिष्ठ नागरिक मनोरंजन केंद्र, सहकारी बैंक, स्व सहायता समूह केन्द्र, आदि बुनियादी जरुरतों के बजाय मंदिर और मूर्तियां बनाना ही होकर रह गई हैं। पुराना हमें पसंद नहीं, नया हमें बनाना नहीं। इसलिए सरकारी बैंक, स्टेशन, हवाई अड्डा, बस अड्डा, कारखाना, स्कूल कालेज, यूनिवर्सिटी सब का हिस्सा बेच कर निजी क्षेत्र को पाला पोसा जा रहा है। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है।
समय बड़ा बलवान है। मैंने बात शुरु की थी उन बच्चों की, जिन्हें बचपन में प्रेम की पूंजी नहीं मिल पाती। ऐसी ही एक कहानी है, डा. लालिमा रामचंदानी की। सिंधी भाषियों के सरनेम कुल में नाम कमाने वाले व्यक्ति के नाम में ‘आणि’ जोड़ने से अक्सर बनते हैं। उदाहरण के लिए किसी कुल में आडवराम या आडव मल ने धन कमाया तो उसकी स्मृति बनाए रखने के लिए उसके वंशज बन गए आडव + आणि= आडवाणी। किसी माधव राम या माधव मल ने पद प्राप्त किया तो वंशज बन गये माधव+आणि= माधवाणी। ठीक इसी तरह लालिमा रामचंदानी हैं। उसने दिल्ली के मौलाना आज़ाद मेडिकल कालेज, नई दिल्ली के छात्रावास में रहकर एम.बी.बी.एस. की उपाधि ली थी। उसके पहले वह स्कूल के दिनों में भी छात्रावास में ही रहती थी। उसके पिता दिल्ली जल निगम में इंजीनियर थे। शादी के बाद मेरा परिचय डा. लालिमा से हुआ। वह कहने लगी- ‘भाई साहब! मेरे मां बाप बड़े #*x@! थे।’ मैंने कहा- ‘अपने मां बाप के लिए ऐसे शब्द आपको नहीं बोलने चाहिए।’ उसने कहा- ‘क्यों ना बोलूं ?’ जब मैं और मेरा भाई छोटे थे। तब सिनेमा का रात को 9 से 12 बजे वाला शो देखने के लिए मियां – बीबी निकल जाते थे। हम दो बच्चे डर के मारे घर में अकेले बंद भय से कांपते रहते थे। ऐसा बचपन जिन्होंने दिया, उन्हें क्या दिल से इज्ज़त दे सकती हूं? अपनी मस्ती मारने के लिए हमें हास्टल में फेंक दिया। स्वार्थी लोग। शादी के लिए भी लड़का मैंने खुद ढूंढा। पहले प्रेम किया। वह भी डाक्टर। वे तो शादी की केवल रस्म पूरी करने आए थे। बड़ा कन्या दान करने वाले बनते हैं। ” मुझे कई बार तो इतना गुस्सा आता है कि काबू करना बहुत मुश्किल हो जाता है। कई -कई बार तो रोना भी आ जाता है कि भगवान, मुझे ऐसा बचपन क्यों मिला ? आखिर मेरा अपराध क्या था। आजतक मुझे यह समझ ही नहीं आया। “
वास्तव में यह बहुत ही सामाजिक, आर्थिक और कुछ हदतक राजनीतिक सवाल भी है। मेरा यह मानना रहा है कि बिना किसी मजबूरी के केवल आधुनिकता के मोहपाश में बच्चों को बोर्डिंग हाउस भेज देना उनके बचपन को तहस-नहस कर देना है। बड़े होकर यही बच्चे अधिकाशतः समाज के प्रति कटुता से भर जाते हैं। उस दशा में उनसे प्रेम, सौहार्द और सामाजिक रीति-रिवाज व व्यवहार की अपेक्षा करना बेमानी है। इस लेख का यही पाथेय है।
*लेखक प्रख्यात शिक्षाविद, समाज विज्ञानी व चिंतक हैं।
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