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गुरु पूर्णिमा पर विशेष
– प्रशांत सिन्हा
भारतीय संस्कृति में गुरु का पद सर्वोच्च माना गया है।शास्त्रों में गुरु को ब्रह्म, विष्णु एवं महेश के तुल्य कहा गया है। बल्कि कई लोगों ने इनसे भी अधिक महत्व दिया है। कबीर कहते हैं कि भगवान और गुरु दोनो साथ मिले तो पहले गुरु के चरणों में समर्पित हो जाना चाहिए।परंतु गुरु ऐसा नहीं मानते। प्रथम स्तर पर गुरु बालक को शिक्षा देकर इस योग्य बनाता है कि वह अपने कर्म क्षेत्र में सफल हो सके। द्वितीय स्तर पर गुरु अपने शिष्य के अंतर्मन में व्याप्त अंधकार और विकारों को नष्ट कर प्रकाश की अनुभूति कराता है। यहाँ अंधकार से मेरा तात्पर्य अज्ञान और अविद्या से है तथा प्रकाश का तात्पर्य ज्ञान से है।
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गुरु केवल व्यक्ति नहीं है बल्कि एक तत्व है और वह तत्व किसी भी अवस्था में या रूप में हो सकता है। व्यावहारिक भाषा में हम कह सकते हैं कि गुरु तब तक हैं जब तक कोई स्वार्थ या प्रलोभन न जुड़ा हो।
गुरु का वास्तविक अर्थ जीवन में गुरुता यानि उसे गहराई प्रदान करने वाले व्यक्ति से होता है। सच्चा गुरु वही है जो अपने शिष्य को जीवन में सच्ची राह पर चलने की प्रेरित करे।
सभी शास्त्र हमें शिक्षा देते हैं कि हमें एक गुरु की खोज करनी चाहिए। गुरु शब्द का अर्थ है भारी या जिसमें गुरुता हो।जिसको अधिक ज्ञान हो, वह ज्ञान से भारी हो। इसी विशेषता के आधार पर किसी को योग्य गुरु मानना चाहिए और किसी व्यक्ति को यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं सबकुछ जानता हूँ। मुझे कौन शिक्षा दे सकता है ?
प्राचीन काल में बालक को प्रारम्भ से ही गुरुकुल में भेजने की व्यवस्था थी। वहाँ उसे पढ़ाई के साथ तुच्छ सेवक के समान कार्य करना होता था। वह बालक महान राजा या ब्राह्मण का पुत्र क्यों न हो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था। जब तक वह गुरुकुल में रहता था वह तत्काल गुरु का नगण्य सेवक ही रहता था। यदि गुरु अपने शिष्य से छोटे से छोटे काम करने को कहते उसे करने लिए शिष्य हमेशा तैयार रहते थे। महाभारत, रामायण में गुरुकुल एवं गुरु का विशेष उल्लेख किया गया है। भारतीय संस्कृति में गुरु – शिष्य के सम्बंध को अत्यंत पावन माना गया है। गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है कि गुरु साक्षात परब्रह्म का स्वरूप है। इसलिए हमें ईश्वर से पहले गुरु की वंदना करनी चाहिए।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वर
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।
जीवन में प्रथम गुरु हमारे माता-पिता होते हैं। गुरु वही है जिसे देखकर मन प्रणाम करे जिसके समीप बैठने से हमारे दुर्गुण दूर होते हैं। गुरु के सान्निध्य से जीवन की दिशा और दशा दोनो बदल जाती है। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वाणी के द्वारा भारत की संस्कृति का परचम सम्पूर्ण विश्व में लहराने वाले स्वामी विवेकानंद को जब गुरु रामकृष्ण परमहंस का वरदहस्त मिला तब वह नरेंद्र नाथ से स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। गुरु द्रोणाचार्य की शिक्षा, प्रेरणा और आशीर्वाद ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में प्रतिष्ठित किया। गोस्वामी तुलसीदास “ हनुमान चालीसा “ में हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि गुरुदेव की तरह मुझ पर कृपा करें “ जय जय हनुमान गोसाई, कृपा करो गुरुदेव की नाई “
गुरु शिष्य को अंगुली पकड़ कर नहीं चलाता बल्कि उसके मार्ग को प्रकाशित करता है। शिष्य को स्वयं ही उस मार्ग पर चलना होता है। सारे संसार में यह गुरुत्व प्राप्त है। वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन तथा प्रत्येक देश में प्राप्त होता है। केवल शिष्य को खोजी होना चाहिए। उसके अंतःकरन में वह ललक विद्यमान होनी चाहिए कि उसे गुरु मिले। बिना गुरु के संसार रूपी सागर से सम्भव नहीं चाहे वह ब्रह्मा हो अथवा शंकर ही क्यों न हो। श्री राम और श्री कृष्ण साक्षात ईश्वर ईश्वर माने गए हैं किंतु जब वे अवतार लेकर इस धरती पर आए तब वह भी गुरु का ही वरण करते हैं।
वास्तव में जिसके समक्ष जा कर हमारे हृदय में आस्था, विश्वास,तथा प्रेम का उदय हो जाए वस्तुतः वही हमारा गुरु है। वर्तमान समय में नैतिक मूल्यों में निरंतर गिरावट आती जा रही है। गुरु- शिष्य के पवित्र सम्बन्धों पर पर भी इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। समाज में आवश्यकता है ऐसे गुरुओं की जो दया, क्षमा, सदाचार इत्यादि मानवीय मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हुए धैर्य, विवेक और त्याग जैसे गुणों से शिष्य को अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले चले।
सदगुरु की तलाश शिष्य को ही नहीं होती बल्कि गुरु भी अपने ज्ञान की धरोहर को सुरक्षित हाँथों में सौंपकर संतुष्ट होकर परमानंद की अनुभूति करता है। गुरु ऐसे शिष्य को मात्र एक बीज देता है और शिष्य भूमि बनाकर उस बीज को अंकुरित करता है। इस प्रकार सच्चा गुरु शिष्य को सही मार्ग निर्देशित करके उसके जीवन मार्ग को प्रशस्त करता है।
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