– ज्ञानेन्द्र रावत*
आज जाने-माने पर्यावरणविद, कालजयी पुस्तक “आज भी खरे हैं तालाब” के रचियेता, समाजवादी युवजन सभा, जे पी आंदोलन, चिपको आंदोलन और चम्बल के दस्युओं के आत्म समर्पण में अहम भूमिका निबाहने वाले भाई अनुपम मिश्र जी को इस नश्वर संसार को छोडे़ चार वर्ष बीत चुके हैं। पर्यावरण जगत से जुडे़ सभी साथी उनको अपनी भावभीनी श्रृद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। इस अवसर पर उन्हें सच्ची श्रृद्धांजलि यह होगी कि उनकी कालजयी पुस्तक पर चिंतन-मनन किया जाये जो तालाबों के इतिहास, महत्ता और उपयोगिता के संदर्भ में मील का पत्थर है।अपनी इस पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब में आज से सत्ताइस बरस पहले उन्होंने स्पष्ट किया है कि हमारे यहां तालाबों की बदहाली का सबसे बडा़ कारण यह था कि पुराने तालाब साफ नहीं कराये गये और नये कभी बने ही नहीं। दरअसल साद तालाबों में नहीं, नये समाज के माथे में भर गयी है। उनके कहने का मतलब साफ था कि तब समाज का माथा साफ था। उसने साद को समस्या की तरह नहीं, बल्कि साद को तालाब के प्रसाद के रूप में ग्रहण किया था। उनके अनुसार सैकडो़ं हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई , दहाई मिलकर सैकडा़ हजार बनती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोडी़ सी पढा़ई पढ़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकडा़ हजार को शून्य ही बना दिया। नतीजा सबके सामने है कि जिस देश में तकरीबन बीसियों लाख तालाब थे, वहां तालाब आज इतिहास की वस्तु बनकर रह गये हैं।
समाज में तालाबों की महत्ता के विषय में गोंड समाज का उन्होंने विशेष रूप से उल्लेख किया है। उनका कहना है गोंड समाज का तालाबों से विशेष संबंध रहा है। इतिहास इसका प्रमाण है कि महाकौशल में यह गुण जगह जगह तालाब के रूप में बिखरा मिलेगा। जबलपुर के पास कूड़न द्वारा बनवाया गया ताल आज कोई एक हजार बरस बाद भी काम दे रहा है। इसी समाज में रानी दुर्गावती हुईं जिन्होंने अपने छोटे से काल में एक बडे़ भाग को तालाबों से भर दिया था।
जहां तक तालाबों के जलस्तर का सवाल है, स्तंभ तालाब के जलस्तर को बताते थे। पर तालाब की गहराई प्राय : पुरुष नाप से नापी जाती थी। दोनों भुजाएं अगल बगल फैलाकर खडे़ हुए पुरुष के एक हाथ से दूसरे हाथ तक की कुल लम्बाई पुरुष या पुरुख कहलाती थी।
पानी के मामले में हमारे समाज के जुडा़व का इसी से पता चलता है कि वह हर परिस्थिति में भी अपने जीवन की रीत खोजने में लगा रहता था। यही नहीं मृगतृष्णा कै झुठलाते हुए भी जगह जगह पानी के तरह तरह के प्रबंध करता रहता था। राजस्थान इसका प्रमाण है। वहां जहां तालाब नहीं, पानी नहीं, वहां गांव नहीं। मतलब साफ है कि तालाब का काम पहले होगा तब उसको आधार बनाकर गांव बसेगा। तात्पर्य यह कि मरुभूमि में सैकडो़ं गांवों का नामकरण वहां बने तालाबों के नाम से जुडा़ है। इनका प्रबंध मरुभूमि के समाज ने अपने दम पर किया था।गौरतलब यह है कि यह इतना मजबूत था कि उपेक्षा के लम्बे दौर के बावजूद आज भी वह किसी न किसी रूप में टिका हुआ है। जैसलमेर जहां एक भी बारामासी नदी नहीं है, जहां 70 सालों का अध्ययन बताता है कि साल के 365 दिनों में से 355 दिन सूखे गिने गये। मरुभूमि के लोगों ने दस दिन की वर्षा में करोडो़ं बूंदों को देखा और उनको घर-घर, गांव-गांव, शहर-शहर एकत्र करने का काम किया। परिणामत: जैसलमेर जिले में 99.78 फीसदी गांवों में तालाब, कुंए आदि अन्य स्रोत हैं। यानी इतनी फीसद गांवों में पानी का प्रबंध है। यहां का घड़सीसर तालाब राज-समाज के पानी के प्रति प्रेम का जीवंत प्रमाण है। यहां का समाज पानी को पानी नहीं बल्कि जलराशि मानते थे।आज भी तकरीब सात सौ बरस पुराना घड़सीसर मरा नहीं है। बनाने वालों ने उसे समय के थपेडो़ं को सहने लायक मजबूती प्रदान की थी। उसके बाद तो अंग्रेजों के आने तक यहां हर सौ-पचास बरस के बाद तालाब बनते गये। गजरूप सागर, मूल सागर, गंगा सागर, गुलाब सागर, ईसर लाल जी का तालाब आदि इसके सबूत हैं। इनको बनाने की कडी़ की मजबूती सिर्फ राजाओं, रावलों, महारावलों पर ही नहीं छोडी़ गयी थी, इसमें समाज के वे अंग भी शामिल थे जो आज की परिभाषा में आर्थिक रूप से कमजोर माने जाते हैं, तालाबों की कडी़ को मजबूत बनाये रखते थे। लेकिन आज राज पर काबिज लोग घड़सीसर का अर्थ ही भूल चुके हैं। रेत की आंधियों के बीच अपने तालाबों की उम्दा सार-संभाल की परंपरा को डालने वालों को शायद इसका अंदाजा ही नहीं था कि कभी इनकी उपेक्षा की आंधी भी चलेगी। लेकिन इस सबके बावजूद इस आंधी को भी घड़सीसर और उसे चाहने वाले लोग बहुत ही धीरज के साथ सह रहे हैं, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।
देखा जाये तो अंग्रेजों के दौर में भी देश में तालाबों पर चल रहे कामों, उनके निर्माण का उल्लेख मिलता है। 1907 तक यह काम चलता रहा। मध्य प्रदेश के दुर्ग और राजनांदगांव इसके उदाहरण हैं। लेकिन यह स्थिति हर जगह एक जैसी नहीं थी।
पानी पर राज और गुणी समाज के सम्बंध और प्रबंध को मैसूर राज में सबसे पहले छीनने का प्रमाण मिलता है। गौरतलब है कि सन् 1800 तक मैसूर में पानी और तालाबों की देखरेख राज्य के दीवान पूर्णतया देखते थे।उस समय अकेले मैसूर राज्य में 39000 तालाब थे जिनकी देखरेख पर राज के अलावा समाज भी कुछ लाख रुपये हर साल खर्च करता था। अंग्रेजों ने आने के बाद 1831 में राज की ओर से तालाबों की देखभाल के लिए दी जाने वाली राशि आधी कर दी। इसके बाद भी समाज ने 32 सालों तक तालाबों की बखूबी देखभाल की। इसके बाद 1863 में पी डब्ल्यू डी विभाग बनते ही तालाबों की देखभाल का जिम्मा समाज से ले लिया गया। ऐसी स्थिति में धन, साधन और स्वामित्व के बिना समाज लाचार हो गया और तालाबों का प्रबंधन कभी पी डब्ल्यू डी तो कभी सिंचाई विभाग के बीच झूलता रहा लेकिन राजस्व बढ़ता रहा और तालाबों के रखरखाव का मामला कभी चंदा तो कभी जबरन बसूली के बीच उलझा रहा। हालत यह हो गयी कि तालाब लाभ-हानि के पचडे़ में फंसकर राज के पलडे़ से बाहर कर दिये गये।
उसके बाद देश में राजधानी दिल्ली ही नहीं महानगरों में वाटर वर्क्स के जरिये नलों से लोगों को पानी की आपूर्ति की जाने लगी। नतीजतन जगह-जगह नलों का जाल बिछता चला गया और पानी आपूर्ति के मुख्य स्रोत तालाब-कुंए-बाबडी़ उपेक्षित होते चले गये। आजादी बाद तो इन जल स्रोतों पर अवैध कब्जों का सिलसिला शुरू हुआ और इनपर मकान, आवासीय कालोनियों का जाल बिछता चला गया। दुखदायी बात यह कि जल की निकासी की व्यवस्था की ओर नगर नियोजकों का ध्यान ही नहीं गया जिसका परिणाम बारिश के दौरान शहरों के डूबने के रूप में सामने आया।पिछले वर्षों में आयी चेन्नई की बाढ़ इस कथन का जीता जागता सबूत है। सत्तर के दशक के बाद तो अधिकांश तालाबों का देश में नामोनिशान तक नहीं रहा और उनपर कहीं स्टेडियम, कहीं बाजार और मोहल्ले दिखाई देने लगे। नगर पालिकाएं, नगर निगम शहरवासियों को वाटर वर्क्स के जरिये पानी की आपूर्ति करने में असमर्थ दिखाई देने लगे । जल संकट गहराने लगा ।नतीजतन लोग बोरिंग कर मोटर पम्पों, ट्यूबवैल के जरिये पानी की जरूरत पूरी करने लगे। जिसका दुष्परिणाम भूजल के भीषण संकट के रूप में हमारे सामने मुंह बाये खडा़ है। आज समस्या यह है कि शहरवासियों को पानी चाहिए लेकिन विडम्बना है कि पानी दे सकने वाले तालाब नहीं हैं।
कुंए पूर दिये गये हैं या यूं कहें कि उनके दर्शन ही दुर्लभ हो चुके हैं। हालत यह है कि कहीं पाइपों के जरिये लोगों की प्यास बुझाने नर्मदा का पानी लाया जा रहा है, कहीं रेलों और कहीं टैंकरों के जरिये पानी पहुंचाया जा रहा है, कहीं गड्ढों का गंदा प्रदूषित पानी पीकर लोग अपनी प्यास बुझाने को मजबूर हैं। उस हालत में जबकि देश की गंगा सहित अधिकांश नदियां प्रदूषित हैं और वह गंदे नाले के रूप में तब्दील हो चुकी हैं। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि जिस देश में नदियों का जाल बिछा हो, वहां की तकरीब साठ फीसदी आबादी को पीने का साफ पानी तक मयस्सर नहीं है। नीति आयोग तक इसकी पुष्टि कर चुका है। ऐसे समय अब ज्यादा पढे़-लिखे और समाज से कटे हुए लोग जो एक समय पुरानी परंपराओं-तौर-तरीकों को दकियानूसी करार देते थकते नहीं थे, तालाबों के निर्माण की वकालत करने लगे हैं। निश्चित ही यह समय पर्यावरण चेतना के विलक्षण यायावर भाई अनुपम मिश्र जी के विचारों पर चिंतन-मनन करने का है जो उन्होंने अपनी पुस्तक ” आज भी खरे हैं तालाब ” में व्यक्त किये हैं। उनका मानना रहा और उन्होंने अपनी पुस्तक में इसका खुलासा भी किया है कि शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं हैं।उस स्थिति में तो पानी ट्यूबवैल से ही मिल सकता है। पर इसके लिए बिजली,डीजल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। मद्रास जैसे कई शहरों का अनुभव यही बताता है कि लगातार गिरता जलस्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली नदी से पानी उठाकर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यवहारिक तरीके अपनाये हैं।इंदौर का ऐसा ही उदाहरण आंखें खोलने वाला है। यहां दूर बह रही नर्मदा का पानी लाया गया था।जब योजना का पहला चरण छोटा पडा़ तो दूसरा और फिर तीसरे चरण के लिए आंदोलन भी हुआ।
दरअसल पानी के मामले में निपट बेवकूफी के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के सागर का उदाहरण हमारे सामने है। कोई छह सौ बरस पहले लाखा बंजारे द्वारा बनाये गये सागर नामक विशाल तालाब के किनारे बसे शहर का नाम सागर ही हो गया था। आज यहां नये समाज की पांच बडी़ प्रतिष्ठित संस्थायें हैं। जिले और संभाग के मुख्यालय हैं। पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र है। सेना का महार रैजिमेंटल सेन्टर है। सेना के कई डिवीजन के मुख्यालय हैं।नगर पालिका है। डा.सर हरीसिंह गौर के नामपर बना विश्व विद्यालय है। एक बंजारा यहां आया और बहुत बडा़ विशाल सागर बनवाकर चला गया। लेकिन नये समाज की ये साधन संपन्न संस्थाएं इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं।आज सागर के इस तालाब पर ग्यारह से अधिक शोध प्रबंध हो चुके हैं, डिग्रियां भी बंट चुकी हैं।पर एक अनपढ़ माने गये बंजारे के हाथों बने सागर को पढा़-लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है। उपेक्षा की इस आंधी में कई तालाब फिर भी खडे़ हैं।देश में कोई आठ से दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं।और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ-साथ कुपात्रों में भी बांट रहे हैं। उनकी मजबूत बनक इसका एक कारण है लेकिन एकमात्र कारण नहीं। तब तो मजबूत पत्थरों के बने पुराने किले खंडहरों में नहीं बदलते। कई तरफ से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है।
न जाने कितने शहर , कितने सारे गांव आज भी इन्हीं तालाबों के कारण टिके हुए हैं। बहुत सी नगर पालिकाएं आज भी इन्हीं तालाबों के कारण पल रही हैं और सिंचाई विभाग इन्हीं के दमपर खेतों में पानी दे रहे हैं। अलवर जिले में बीजा की डाह जैसे गांवों में आज भी सागरों के वही नायक नये तालाब खोद रहे हैं और पहली बरसात में उनपर रात-रात भर पहरा दे रहे हैं। सच तो यह है कि हर जगह तालाब हैं और इसी तरह सब जगह उन्हें बनाने वाले लोग भी रहे हैं। इन राष्ट्र निर्माताओं को आज के समाज के पढे़-लिखे लोग और जो पढ़-लिख रहे हैं, वे लोग कैसे भूल बैठे, यह बात आसानी से समझ नहीं आती। इस बारे में मेरा कहना है कि यदि तालाब को समझना है तो “आज भी खरे हैं तालाब” नामक भाई अनुपम जी की पुस्तक को पढ़ना ही होगा।असलियत में पानी,पर्यावरण व समकालीन सामाजिक सरोकारों में गांधीवादी समझ व मूल्यों को अपने जीवन में उतारने वाले चिंतक,लेखक, अहिंसक योद्धा और मौजूदा पीढी़ के महान गांधीवादी भाई अनुपम जी के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।